डॉ शाहनवाज कुरैशी
स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री, स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी और प्रचंड विद्वान मौलाना अबुल कलाम आजाद को राष्ट्रीय एकता का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है. बकौल डॉ राजेंद्र प्रसाद – ‘उन्होंने अपनी तकरीरों से मुल्क में बेदारी की ऐसी लहर दौड़ाई की हर जानिब से आजादी का तूफान उमड़ आया हो’. ‘मौलाना आजाद एंड द मेकिंग ऑफ द इंडियन नेशन’ के लेखक रिजवान कैसर ने कहा कि भारत में कोई भी मुसलिम नेता मौलाना के कद की बराबरी नहीं कर सकता है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), संगीत, नाटक, साहित्य व ललित कला जैसी अकादमियों की स्थापना में अहम रोल निभानेवाले मौलाना आजाद मार्च 1916 से दिसंबर 1919 तक लगभग पौने तीन साल तक रांची में नजरबंद रहे.
रांची प्रवास के दौरान ही उन्होंने मदरसा इस्लामिया की बुनियाद रखी और अंजुमन इस्लामिया स्थापित की. जनवरी 1920 में रांची से जाने के 27 वर्ष बाद देश को आजादी मिली. मौलाना आजाद अगले 10 वर्षों (1947-1958) तक देश के शिक्षा मंत्री रहे, लेकिन इन 37 वर्षों में मौलाना आजाद कभी भी रांची नहीं आये. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि अपनी चर्चित आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में रांची नजरबंदी अवधि का उल्लेख तक नहीं किया. यह बात कचोटती है कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं में भी उन्होंने रांची का जिक्र नहीं किया. हालांकि मौलाना ने रांची प्रवास के दौरान ही अपनी कई रचनाओं को अंतिम रूप दिया. 1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आजाद ने की. अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा-‘1100 वर्षों के साझा इतिहास ने हिंदुस्तान को साझी उपलब्धि से समृद्ध किया है. यह साझी संपत्ति हमारी साझी राष्ट्रीयता की विरासत है.’ लेकिन इस दौरान भी उनके रांची आने का कोई प्रमाण नहीं है.
सामाजिक कार्यकर्ता हुसैन कच्छी के अनुसार मौलाना आजाद ने रांची को क्यों भुला दिया, इसका राज अंजुमन इस्लामिया के दस्तावेजों में दफन है. जिसकी तलाश करने की आवश्यकता है. कहा जाता है कि मदरसा इस्लामिया की स्थापना के लिए उन्होंने अपनी पत्नी के जेवर और अल हिलाल अखबार की मशीन बिक्री से मिली रकम भी लगा दी. लाहौर से प्रकाशित पत्रिका ‘नकूस’ के संपादक मुहम्मद तुफैल ने चार खंडों में ‘खुतूत नंबर’ प्रकाशित किया है. एक-एक खंड 850-900 पृष्ठों का है.
इसमें आधुनिक काल के अनेक प्रमुख शख्सियतों के पत्रों को शामिल किया गया है. मौलाना आजाद का एक पत्र भी इसमें है. जिसमें दिल्ली के किसी व्यक्ति को लिखे पत्र में उन्होंने रांची प्रवास में कच्छी-मेमन परिवार द्वारा ख्याल रखे जाने का उल्लेख किया है. 1915 इंडिया सेफ्टी एक्ट के तहत बंगाल छोड़ने का निर्देश मिलने के बाद मौलाना आजाद ने नागरमल मोदी के साथ अच्छे संबंध के कारण रांची का रुख किया. यहीं उन्होंने जामा मस्जिद के मुअज्जिन जियाउल हक की लकड़ी टिंबर की जमीन को खरीद कर मदरसा इस्लामिया की स्थापना की. जिसके निर्माण में शहर के गैर मुस्लिम लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. मौलाना के रांची से लौटने के बाद भी शहर के किसी व्यक्ति ने दावा नहीं किया कि उनके पास मौलाना का लिखा कोई पत्र है.
बकौल वरिष्ठ पत्रकार खुर्शीद परवेज सिद्दीकी – ‘मौलाना ने अपनी आत्मकथा और किसी तहरीर में रांची का जिक्र नहीं किया. वे ज्यादा घुलने-मिलनेवाले व्यक्ति नहीं थे. उन्हें एकांत प्रिय था.’ मौलाना आजाद पर पुस्तक लिख चुके डॉ. इलियास मजीद के अनुसार रांची में मौलाना की विरासत को आगे नहीं बढ़ाना, छोटानागपुर उन्नति समाज, किसान महासभा, आदिवासी महासभा की रांची में मजबूत उपस्थिति, मुस्लिम लीग के साथ संबंध और कांग्रेस की कमजोर हालत के कारण रांची में उनकी वापसी फिर नहीं हुई. मौलाना आजाद का वास्तविक नाम अबुल कलाम गुलाम मुहीउद्दीन था. अरब के शहर मक्का में 11 नवंबर 1888 को जन्में मौलाना के पिता मौलाना खैरुद्दीन कलकत्ता के विख्यात मुसलिम विद्वान थे.
बतौर लेखक व पत्रकार मौलाना आजाद ने हिन्दू-मुसलिम एकता का अलख जगने का काम किया. मौलाना को अरबी, अंग्रेजी, उर्दू, हिंदी, फारसी और बांग्ला भाषा में महारथ हासिल थी. विद्वानता इतनी कि 18 वर्ष की आयु तक एलानुल हक, अहसनुल मसालिक, अल अलूमुल जदीद वल इस्लाम, अलहैयत और इस्लामी तौहीद और मजाहिबे आलम जैसी पुस्तकें लिख डाली. मौलाना ने खिलाफत आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी. खिलाफत आंदोलन ने हिन्दू-मुसलिम में एकता की नयी इबारत लिखी.
दोनों समुदायों को जोड़ने में सेतू का काम किया. 1920 में महात्मा गांधी के सिद्धांतों का समर्थन करते हुए असहयोग आंदोलन में भाग लिया. मौलाना की बढ़ती लोकप्रियता के कारण ही 1923 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सबसे कम उम्र का अध्यक्ष बनाया गया. मुस्लिम लीग के दो राष्ट्रों के सिद्धांत का उन्होंने जम कर विरोध किया. सरोजिनी नायडू ने कहा था-आजाद जिस दिन पैदा हुए थे, उसी दिन वो 50 साल के हो गये थे. 1992 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से विभूषित किया गया.
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