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- I Am Not A Public Poet But A Villager; The Poet Who Wrote Going Is The Most Dreadful Verb In Hindi.
28 मिनट पहले
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हिंदी को देश और भोजपुरी को अपना घर मानने वाले एक कवि जिन्होंने अपने गांव में कभी हिंदी नहीं बोली लेकिन फिर भी हिंदी को अपना देश कहा, माना और जीया भी। एक कवि जो अपने आत्म परिचय में कहते हैं, ‘कविता, संगीत और अकेलापन, ये तीन चीजें मुझे बेहद प्रिय हैं।
वो अक्सर कहते थे मैं जाता हर जगह हूं लेकिन मेरा मन सिर्फ गांव जाने का होता है।
ये थे तीसरे तार सप्तक के कवि केदारनाथ सिंह। ‘अभी बिल्कुल अभी’ उनका पहला काव्य संग्रह था, जिसके 20 साल बाद उनका दूसरा काव्य संग्रह ‘जमीन पक रही है’ आया। पहले काव्य संग्रह ने उन्हें पूरी तरह एक नये कवि के रूप में स्थापित कर दिया।
एक ऐसे कवि जिनकी कविता में कोई ठहराव नहीं है और न ही कोई छिपाव है। वे अपनी कविताओं में किसी बनी बनाई लकीर पर नहीं चलते बल्कि नया रास्ता बनाते चलते हैं।
गिरगिट से बात करने वाले कवि
कवि उदय प्रकाश ने उनकी ‘टॉलस्टॉय और साइकिल’ कविता के प्रसंग में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ‘वे एक उदास गिरगिट से बात कर सकते थे’ वो लिखते हैं मैंने सच में एक कवि को उदास गिरगिट से बात करते हुए देखा है जो उनके शिष्य भी थे।
असल मे हिंदी के कवि रमाशंकर विद्रोह एक ऐसे ही कवि थे, जो शाम को जेएनयू के गंगा ढाबा के कोने में अपनी मंत्र कविता को बुदबुदाते एक उदास गिरगिट से बात करते हुए मिल जाया करते थे। वे केदार नाथ सिंह की कविता ‘नूर मियां’ को याद करते थे। ये कविता देश के बंटवारे पर लिखी गई थी।
जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है
केदारनाथ सिंह ने ऐसी कविताएं लिखीं जो घास पर भी थीं और नरम हथेली पर भी। मां-पिता पर भी कविताएं लिखीं लेकिन अपनी पत्नी को बहुत कम उम्र में ही खो चुके केदारनाथ ने पत्नी के लिए लिखा
‘जिस मुंह ने मुझे चुमा था, अंत में उस मुंह को मैंने जला दिया।’ उनकी कविताएं, कविताओं से कहीं ज्यादा संवाद थीं।
उनकी कविताओं में वो एक आम सी बात को लिख देते थे और वो अलग हो जाती थी, जैसे चीटियां, घास, आग।
चकिया गांव से विदेश तक
दरअसल उनके भाषा को लेकर बहुत सरोकार थे। भोजपुरी में उन्होंने तमाम कविताएं लिखी हैं।
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में एक किसान परिवार में उनका जन्म 7 जुलाई 1934 में हुआ था।
गांव में आते ही कवि केदारनाथ गांव के असल ग्रामीण बन जाते जो दरवाजे पर बैठकर सबका हाल लेते और ऐसे लगते जैसे इसी भेष में रहते रहे हैं। इसके साथ ही ग्रामीणों को दुनिया देश की खबरें भी बताते।
शरुआती पढ़ाई गांव में हुई थी और उसके बाद ग्रेजुएशन बनारस में कियाऔर अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जेएनयु गए और वहां शिक्षक और अध्यक्ष बनकर अपना समय दिया।
अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, बनारस, गोरखपुर जैसे शहरों से लेकर दिल्ली महानगर तक वो रहे लेकिन उन्होंने अपने गांव चकिया को कभी नहीं भूले।
उनकी मृत्यु 19 मार्च 2018 को एम्स में हुई और आज हम उन्हें उनकी 6वीं पुण्यतिथि पर याद कर रहे हैं। उनकी आखरी कविता ‘जाऊंगा कहां’ उनका आखिरी वक्तव्य लगता है जैसे वो कह रहे हों मैं यही हूं जाऊंगा कहां।
इन 20 वर्षों में ही हिंदी कविता के सारे जरूरी और गैरजरूरी आंदोलन हुए और मुक्तिबोध, धूमिल, रघुवीर सहाय जैसे कवि पहचाने गए। इसके साथ ही कविता में क्या हो, क्या न हो, क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए, कैसे कहा जाए, कैसे न कहा जाए यह सब तय हुआ।
लेकिन हिंदी में कवि-निर्माण सारी स्थितियों में कविता से ही नहीं होता है। केदारनाथ सिंह के बाद न किसी दूसरे कवि के जीवन में ये 20 वर्ष नहींआए और न ही हिंदी कविता के जीवन में आएंगे।
कवि नामवर लाए थे जेएनयू
प्रगतिशील धारा के कवि त्रिलोचन से उनकी यहीं मुलाकात हुई और यहीं से उनकी कविताओं को जमीन भी मिली। नामवर सिंह उन्हें जेएनयू लाए थे, इस बात को उन्होंने बहुत सहज ढंग से माना मैं तो एक साधारण जगह पढ़ा रहा था, जेएनयू से मेरा परिचय नामवर ने ही करवाया।’
बनारस से केदारनाथ सिंह का लगाव उनकी कविता बनारस में देखा जा सकता है, इस कविता में उन्होंने जैसे बनारस को लिखा वैसे कोई और कवि या साहित्यकार नहीं लिख पाए हैं।
प्रगतिशील धारा के कवि त्रिलोचन से उनकी यहीं मुलाकात हुई और यहीं से उनकी कविताओं को जमीन भी मिली।
जनकवि नहीं एक ग्रामीण हूं मैं
जनकवि तो बहुत बड़ा शब्द है और जनता तक कितना मैं पहुँच पाया हूँ यह नहीं जानता. जनकवि कहलाने लायक हिंदी में कई कवि हो चुके हैं. कई सम्मानित हुए, कई नहीं हुए।
जो कुछ मैं लिखता पढ़ता रहा हूं उसमें गांव की स्मृतियों का ही सहारा लिया है, क्योंकि मैं गांव से आया हुआ हूं और ग्रामीण परिवेश की स्मृतियों को संजोए हुए मैं दिल्ली जैसे महानगर में रह रहा हूं।
मेरी जड़ें ही मेरी ताकत है. मेरी जनता, मेरी भूमि, मेरा परिवेश और उससे संचित स्मृतियां ही मेरी पूंजी है. मैं अपने साहित्य में इन्हीं का प्रयोग करता रहा हूँ और बचे खुचे जीवन में भी जो कुछ कर पाऊंगा उन्हीं के बिना पर कर पाऊंगा।
कवि केदार नाथ सिंह के साथ मदन कश्यप
- तुमने कभी देखा है खाली कटोरों में वसंत का उतरना
यह शहर इसी तरह खुलता है इसी तरह भरता और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज रोज एक अनंत शव ले जाते हैं कंधे,
अंधेरी गली से चमकती हुई गंगा की तट पर
इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घण्टे
शाम धीरे-धीरे होती है।
इसे अचानक देखो अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है।
यह लो मेरा हाथ
इसे तुम्हें देता हूं
और अपने पास रखता हूं
अपने होठों की
थरथराहट!
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा,
दुनिया को
हाथ की तरह नर्म और सुंदर होना चाहिए।
2.
बरसों तक साथ-साथ
रहने के बाद
जब वे विधिवत अलग हुए
तो सारे फ़ैसले में
यह छोटी-सी बात कहीं नहीं थी
कि जहां वे लौटकर जाना चाहते हैं,
वह अपना अकेलापन
वे परस्पर गंवा चुके हैं
बरसों पहले।
3.
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूं
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूं ‘पानी’
‘आदमी’ ‘आदमी’ – मैं लिखना चाहता हूं
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा,
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं
4
अगर इस बस्ती से गुजरो
तो जो बैठे हों चुप
उन्हें सुनने की कोशिश करना,
उन्हें घटना याद है
पर वे बोलना भूल गए हैं।
5
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए,
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना!
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी।
6
‘जाऊंगा कहां, रहूंगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूंगा
किसी पुराने ताखे
या संदूक की गंध में
छिपा रहूंगा मैं
दबा रहूंगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊंची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घंटी बन जाऊंगा
या फिर मांझी के पुल की
कोई कील
जाऊंगा कहां
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बदल जाएगी
सांझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊंगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग…’
उनका अंतिम संग्रह है सृष्टि पर पहरा, उस संग्रह की अंतिम कविता है- ‘जाऊंगा कहां.’ ऐसा लगता है कि ये उनका अंतिम वक्तव्य है-
ज्ञानपीठ मिला; ये मेरा नहीं हिंदी का सम्मान है
2013 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। 1989 में उनकी रचना ‘अकाल में सारस’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था। इसके अलावा उन्हें व्यास सम्मान, मध्य प्रदेश का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, उत्तर प्रदेश का भारत-भारती सम्मान, बिहार का दिनकर सम्मान और केरल का कुमार आशान सम्मान मिला था।
साल 2013 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाले वो दसवें कवि थे।
ज्ञानपीठ मिलने पर कहा ‘ये सिर्फ मेरा नहीं बल्कि हिंदी और इसकी लंबी परंपरा का सम्मान है और वह इसे कृतज्ञता से स्वीकार करते हैं।’